Monday 4 November 2013

वक्तृत्व कला के धनी आलोचक : चौथीराम यादव

वक्तृत्व कला के धनी आलोचक : चौथीराम यादव
- महेंद्र प्रसाद कुशवाहा**

हिंदी में कुछ ऐसे आलोचक हुए हैं जिन्होंने अपनी आलोचना-यात्रा में बहुत कम लिखा है, किन्तु जितना लिखा है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | हम इनके लेखन को नजरअंदाज करके हिंदी आलोचना की विकास-परंपरा पर मुकम्मल रूप से बात नहीं कर सकते | मुक्तिबोध, मलयज, विजयदेव नारायण साही, देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक ऐसी ही श्रेणी में आते हैं | इन आलोचकों ने जब और जिस विषय पर लिखा हिंदी जगत में हलचल सी मच गयी | लम्बे दिनों तक इनके लेखन पर चर्चा और बहस होती रही | यह दीगर बात है कि इनमें से  मुक्तिबोध को छोड़कर किसी अन्य आलोचक पर हिंदी में न तो व्यवस्थित रूप से किसी ने लिखा है और न ही इन पर किसी विश्वविद्यालय में कोई ढंग का शोध किया और कराया गया है | यह हिंदी का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ऐसे महत्त्वपूर्ण आलोचकों को आज हिंदी जगत ने लगभग भुला सा दिया है | हम कभी- कभार इनके ऊपर एक-दो वाक्य बोलकर, यह कहते हुए कि वे अच्छे और बड़े आलोचक थे, आगे निकल जाते हैं | हमारे लिए इनका महत्त्व स्मरण मात्र रह गया है | ऐसे ही एक आलोचक हुए हैं प्रोफेसर चौथीराम यादव | काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे और वहीं पर अध्ययन- अध्यापन के कार्य से सेवानिवृत्त हुए चौथीराम जी ने अपने आलोचकीय जीवन में बहुत ज्यादा तो नहीं लिखा है, किन्तु जितना लिखा है वह हिंदी आलोचना का महत्त्वपूर्ण धरोहर है | उन्होने जब-जब लिखा है हिंदी में उनके लेखन को लेकर हमेशा चर्चा और बहस हुई है | लोगों ने उनके लेखन को सराहा है | ठीक ही ‘तद्भव’ के सम्पादक अखिलेश ने उनके बारे में लिखा है “प्रो०चौथीराम यादव कम लिखते हैं किन्तु उनके तर्क, विश्लेषण, व्याख्याएं, विचार इतने अचूक और निडर होते हैं कि उनके लिखे हुए पर पूरा ध्यान जाता है |” (तद्भव-१९, पृष्ठ सं०-२७ ) | निश्चय ही चौथीराम जी के लेखन में मौजूद उनके तर्क, विश्लेषण और विचार ने हमेशा हिंदी प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है | उनके विचार अचूक और निडर होते हैं | तर्क करने की उनकी क्षमता अतुलनीय है | उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं “दाद देनी पड़ती है उन हिन्दू शास्त्रकारों की प्रतिमा और कंप्यूटर की काम करने वाले उनके दिमाग की जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पोखता और अकाट्य बनाने के लिए समय-समय पर पूर्वजन्म, कर्मफल, भाग्यवाद, अवतारवाद और प्रतिपक्ष के लिए कलिकाल जैसी अवधाराणाओं का विकास किया | शतरंज के मंजे हुए खिलाडी की तरह वे हारी हुई बाजी को भी जितना जानते थे और यह भी कि किस मोहरे को किस मोहरे से पीटा जा सकता है | अवतारवाद के उद्देश्य को चरितार्थ करने और उसके प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें कृष्ण के रूप में एक कारगर मोहरा मिल गया था जिससे वे किसी भी मोहरे को मात दे सकते थे | अवतारवाद की पौराणिक कल्पना शतरंज की तरह ही ऐसा दिमागी खेल है जिसमें कभी महावीर को, कभी बुद्ध को तो कभी कृष्ण को कारगर मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया है | इस खेल की विशिष्टता यह है कि मोहरे चाहे काले हों या सफ़ेद, जीत हमेशा ईश्वर की ही होती है | वस्तुतः यह वर्चस्व और प्रतोरोध की संस्कृति के बीच शह और मात का ऐसा खेल है जो धरती की पुकार पर ईश्वर और असुरों के बीच खेला जाता है और ‘रिमोट कण्ट्रोल’ गगन बिहारी देवताओं के हाथ में होता है | आकाश से फुल बरसाकर विजय की घोषणा वही करते हैं | इस खेल में लोक की भूमिका नगण्य है |” [ वही, पृष्ठ सं०-(२८-२९) ] और निडर इतने कि रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक की विसंगतियों को दिखाने और उसपर उनके ही अंदाज में चुटकी लेने में कोई संकोच और भय नहीं | सूरदास के ‘भ्रमर गीत’ पर विचार करते हुए वे लिखते हैं “ ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग सूरदास की मौलिक उद्भावना का सर्वोत्तम उदहारण और सूरसागर का सबसे काव्यात्मक अंश भी है, लेकिन उसके सामाजिक-सांस्कृतिक आधार की उपेक्षा कर केवल दार्शनिक आधार पर निर्गुण-सगुन विवादों के रूप में देखते समय हमें यह न भुलना चाहिए कि उद्धव-गोपी संवाद कबीर की तरह ही पोथी बंद को व्यावहारिक ज्ञान की चुनौती है-‘नयननि मूँदि मूँदि किन देखौ बंध्यौ ज्ञान पोथी को’(भ्रमरगीत सार, सम्पादक-रामचंद्र शुक्ल, पद-२२, पृष्ठ-६४ ), इतना ही नहीं, सूर की गोपियाँ तो पौराणिक ज्ञान की खिल्ली उडाती हुई उद्धव पर व्यंग्य करती हैं-‘परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांडे |’ (वही, पद-२५, पृष्ठ-६५) मौलिक प्रतिभा और स्वतंत्र चिंतन से रहित, पोथियों की रटी रटायी भाषा बोलने वाले उद्धव जैसे पोथी पंडित ही कबीर के भी निशाने पर हैं जो पंडिताई को बोझ की तरह ढोते फिरते हैं | कबीर के सामने जैसे पोथी पंडित लाचार हैं, वैसे ही गोपियों के सामने उद्धव भी |  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पंडितों की इस फटकार पर सिद्धों, नाथों और कबीर को यों ही नहीं कोसते ! इन पोथी-पंडितों में उन्हें न जाने कहाँ से ‘शास्त्रज्ञ विद्वानों’ का चेहरा दिखाई पड़ने लगता है जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘चिंता पारतंत्र्य’ के शिकार इन पंडितों की इकहरी समझ पर तरस खाते हैं और लक्षित करते हैं कि भारतीय मनीषा इतनी जड़ और स्तब्ध कभी नहीं हुई थी जितनी मध्यकाल में | आचार्य द्विवेदी मध्यकाल को ‘टीकायुग’ यों ही नहीं कहते |” ( वही, पृष्ठ-३० ) इसी तरह कबीर के सन्दर्भ में उनके मतों की आलोचना करते हुए वे लिखते हैं “आश्चर्य तो इस बात का है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानस की धर्म भूमि के रास्ते तुलसी तक पहुंचते ही कबीर सम्बन्धी अपने प्रगतिशील मूल्यांकन( शुक्ल जी ने लिखा है “इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शुन्य और शुष्क पड़ता जा रहा था | उनके द्वारा यह बहुत आवश्यक कार्य हुआ | इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और उसे भक्ति के ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया |”-हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-६७) और कबीर की ‘प्रखर प्रतिभा’ को वैसे ही भूल जाते हैं जैसे दुष्यंत शकुंतला को –पता नहीं जानबूझकर या किसी अभिशाप के कारण ! जब तुलसी की आँख से कबीर को दुबारा देखते हैं तो अपनी आँख से उनका विश्वास ही उठ जाता है ; अपने ही प्रगतिशील मूल्यांकन को ख़ारिज कर कबीर का एक दूसरा ही चेहरा पेश कर देते हैं जो ‘मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि’ कर रहा है | वह लिखते हैं “साथ ही उन्होंने(तुलसी) यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और अशिक्षित वेदांत के कुछ शब्दों को लेकर यों ही ज्ञानी बने हुए मूर्ख जनता को लौकिक कर्त्तव्यों से विचलित करना चाहते हैं  और मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रहे हैं |” (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-१३५) क्या उलटबासी है कि यहाँ आते ही जनता में आत्मगौरव का भाव जगाने वाला ज्ञान ‘मूर्खता मिश्रित अहंकार’ में बदल जाता है और आत्मगौरव के बोध से जागरूक जनता भी ‘मूर्ख जनता’ में रूपांतरित हो जाती है |” {वही, पृष्ठ-(३५-३६)} | ऐसे ही कई प्रसंग उनके आलोचनात्मक जगत में भरे पड़े हैं | अपनी कुशल तर्क योजना और निडरता में ‘किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं’ कहने वाले गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से भी वे आगे निकल जाते हैं | मुझे लगता है हिंदी आलोचना में चौथीराम जी के अलावा और बहुत कम ही लोगों ने शुक्ल जी की मान्यताओं का इस तरह निर्भीक भाव से खंडन- मंडन किया है | चौथीराम जी ने अपने अब तक के आलोचकीय जीवन में ‘अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोकधर्म’, ‘दलित चिन्तन की परंपरा और कबीर’, ‘आधुनिकताबोध’, ‘हिंदी नवजागरण और उत्तरशती का विमर्श’, ‘नागार्जुन की कविता में प्रतिरोध का स्वर’, ‘उपन्यासों में स्त्रीत्व का मानचित्र’, ‘रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा’ जैसे कई लेख तो लिखे ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य’ शीर्षक से एक स्वतंत्र आलोचनात्मक पुस्तक की भी रचना की है |  
       सौभाग्य से चौथीराम जी जिस विश्वविद्यालय रुपी बगिया के माली रहे हैं उसी विश्वविद्यालय का एक फूल होने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ है | वैसे सन २००३  में स्नातकोत्तर की पढाई के लिए जब मैं बनारस गया और काशी हिन्दू विश्विद्यालय में मैंने दाखिला लिया, तब तक चौथीराम जी अवकाश ग्रहण कर चुके थे | इस तरह उनकी कक्षाओं के प्रत्यक्ष रूप से विद्यार्थी होने का गौरव मुझे हासिल न हो सका, किन्तु उनके आवास पर अपने कई सीनियर्स के साथ मध्यकालीन कवियों को पढ़ने का अवसर मुझे अवश्य प्राप्त हुआ है | मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह से याद है जब मैंने पहली बार गुरुदेव चौथीराम जी को देखा था | संभवतः सन २००३ का अगस्त-सितम्बर का महीना रहा होगा | मैं एम० ए० प्रथम वर्ष का छात्र था | सौभाग्य से हमारे सीनियर्स ऐसे थे जो हम जैसे जूनियर्स को काफी सम्मान देते थे और आपस में सीनियर-जूनियर का भाव पनपने नहीं देते थे | वे सभी प्रायः सभी अध्यापकों के घर जाते, खास कर जो अवकाश ग्रहण कर चुके थे उनके और उनसे कुछ पढ़ने-सिखने का उद्यम करते रहते थे | वे अपने साथ हमारे जैसे जुनियर को भी ले लेते थे | हमलोग कई अध्यापकों के घर इतने कम समय में ही जा चुके थे | इसी क्रम में एक दिन चौथीराम जी के घर जाने की बारी आयी | ऐसे मौके पर प्रायः हम सभी का प्रतिनिधित्व समीर पाठक किया करते थे | उनके ही सलाह पर हमलोग लगभग ७-८ विद्यार्थी चौथीराम जी के सुन्दरपुर में अवस्थित आवास पर पहुंचे | ठीक से याद नहीं पर शाम के ४-५ बजे का समय रहा होगा | समीर भैया ने दरवाजे पर पहुंचकर कॉल बेल की घंटी बजाई | किसी ने आकर दरवाजा खोला | हम सभी उनके घर के एक कमरे में प्रविष्ठ होकर बैठे ही थे कि एक उदार दिल की तरह लम्बा कद,सांवला चेहरा, सफ़ेद बाल, दुबला-पतला शरीर, चेहरे पर हलकी मुस्कान लिए, धोती-गंजी पहने लम्बा डग भरता,जिसमे आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा हो, एक व्यक्ति ने उस कमरे में प्रवेश किया | मैंने इसके पहले कभी चौथीराम जी को देखा नहीं था, अलबत्ता उनके बारे सुन जरुर रखा था कि वे हिंदी विभाग के बड़े ही प्रतापी प्रोफेसर हुए हैं, कुशल वक्ता हैं, मध्यकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् हैं आदि-आदि | उनके कमरे में प्रवेश करते ही सभी खड़े हो गए और सब ने बारी-बारी से उनके पाँव छुए | ऐसा करते देख मुझे समझने में तनिक भी देर न लगी होगी कि यही प्रोफेसर चौथीराम यादव हैं | मैंने भी उनके पाँव छुए | सभी बैठ गए | लोगों ने उनसे बातचीत आरम्भ की | विभाग का हालचाल हुआ | पता नहीं कब और कैसे बातचीत सूर की ओर मुड गयी और मैंने देखा कि वे विस्तार पूर्वक, सूर के पदों को उद्धृत करते हुए उनकी वाग्मिता, बाल-वर्णन और सूर की विशिष्टता को समझाने लगे थे | हम सभी ध्यानपूर्वक उन्हें सुन रहे थे | उस दिन लगभग एक घंटे तक वे हम सबों को सूर के बारे में बताते और समझाते रहे | चूँकि मैं प्रथम वर्ष का छात्र था | मैं चुपचाप उनकी बातों को सुनता रहा | स्नातक में अध्ययन के दौरान भी मैंने सूर को अपने शहर के अच्छे अध्यापक से पढ़ा था , किन्तु उस दिन जो मैंने सुना उससे लगा मानो सूर को हमने कुछ पढ़ा ही न हो | अद्भुत वक्तृत्व कला और तर्क-योजना से उन्होंने सूर के बारे में बता और समझाकर पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझे अपना भक्त-शिष्य बना लिया था | इसके उपरान्त हमलोग कई बार उनके घर गए- कभी सूर को पढ़ने, कभी कबीर को तो कभी तुलसी को | प्रायः सभी भक्तिकालीन कवियों पर हमलोगों ने उनको सुना है | इसके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनके समय और उनके बाद भी बहुत कम ही लोग भक्तिकालीन काव्य को इस तरह से समझने और समझाने की क्षमता रखते हैं | मैंने तो अपने जीवन काल में भक्तिकालीन काव्य पर इनसे बेहतर किसी को बोलते नहीं सुना है |
     चौथीराम जी सहृदय और आत्मीय स्वभाव के व्यक्ति हैं |  यही कारण है कि उनके शिष्य आज चाहे देश के किसी कोने में हों, उन्हें बड़े आत्मीय ढंग से याद करते हैं | शिष्यों के प्रति उनका स्नेह और विश्वास अतुलनीय है | अपने शिष्यों के प्रति भी वे आदर का भाव रखते हैं | हमारे जैसे उनके शिष्यों ने उन्हें कई बार मंच से बोलते हुए सुना है | उन्हें जब-जब हमने सुना है, मन प्रफ्फुलित हो गया है | उनको सुनकर हमें गर्व महसूस होता है कि हमें चौथीराम जी जैसे गुरु से कुछ पढ़ने और सिखने का मौका मिला है | मैं अपनी बात चौथीराम जी के वक्तृत्व कला का दो उदहारण देते हुए समाप्त करना चाहूँगा |
      बनारस छुटने के बाद चौथीराम जी को सुनने का मौका मुझे बहुत दिनों के बाद अपने कर्मस्थली आसनसोल के एक सेमिनार में मिला | विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के वित्तीय सहयोग से बी० बी० कॉलेज, आसनसोल में १९-२० नवम्बर, २०११ को ‘छायावाद : मूल्यांकन के नए परिप्रेक्ष्य’ शीर्षक से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था | इस संगोष्ठी में जाने-माने आलोचक रविभूषण,विजेंद्र नारायण सिंह और चौथीराम यादव, डॉ० विमल, हरिश्चंद्र मिश्र जैसे विद्वानों ने अपने वक्तव्य रखे थे | पहले दिन संगोष्ठी का आरम्भ रविभूषण के बीज वक्तव्य से हुआ था | रविभूषण जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में वक्तव्य रखे थे | एक तरह से पूरी गोष्ठी की रूपरेखा उन्होंने खींच दी थी | पहले सत्र की अध्यक्षता रविभूषण जी ने की थी और मुख्य वक्ता चौथीराम जी थे | अपने वक्तव्य में चौथीराम जी ने कहा था कि आमतौर पर पुनरुत्थान नकारात्मक होता है, किन्तु छायावादी काव्य में जो पुनरुत्थान मिलता है वह नकारात्मक नहीं, बल्कि सकारात्मक रूप में प्रयुक्त हुआ है | उन्होंने अपनी इस बात को विस्तारपूर्वक, उद्धरण देते हुए प्रमाणित भी किया था | इस दिन चौथीराम जी के अलावा विजेंद्र नारायण सिंह, डॉ० विमल, हरिश्चंद्र मिश्र आदि ने अपना बहुमूल्य वक्तव्य रखा था | सबके वक्तव्य को सुनकर मुझे लगा था जैसे यह संगोष्ठी छायावाद के सन्दर्भ में नामवर जी के मतों को पुष्ट करने के लिए रखी गयी हो | मूल्यांकन के नए परिप्रेक्ष्य में बात बिलकुल नहीं हो रही थी | वही पुराणी बातें जो नामवर जी ने या अन्य विद्वानों ने छायावाद के सन्दर्भ में कही है, उसी की चर्चा-परिचर्चा हो रही थी | खैर, पहला दिन समाप्त हुआ | दूसरे दिन का पहला सत्र समाप्त हुआ और संगोष्ठी का अंतिम सत्र आया | सौभाग्य से इस सत्र की अध्यक्षता चौथीराम जी कर रहे थे और इसी सत्र में मुझे ‘हिंदी नवजागरण और छायावादी काव्य’ पर पर्चा पढ़ना था | गुरुदेव चौथीराम जी के पहले दिन के वक्तव्य से मैं बहुत ज्यादा खुश नहीं था क्योंकि आज तक हमने उन्हें जिस अंदाज में बोलते हुए सुना था, वैसा मुझे यहाँ सुनने को नहीं मिला था | अतः मंच पर जाते ही मैंने मन बना लिया कि मैं अपना प्रपत्र वाचन नहीं करूँगा | संक्षेप में अपनी बातों को रखते हुए गुरुदेव को हिंदी नवजागरण पर बोलने का आग्रह करूँगा | मैंने वैसा ही किया | मंच से मैंने कहा था कि पूरी संगोष्ठी में छायावाद के विभिन्न पक्षों पर बात हुई, किन्तु एक महत्त्वपूर्ण पक्ष छायावाद में मौजूद नवजागरण के तत्त्व पर किसी ने विस्तारपूर्वक बात नहीं की है | अतः मैं गुरुदेव चौथीराम जी से उम्मीद करता हूँ कि वे इस पर विस्तार से अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में बोलेंगे | हम सभी जानते हैं कि अध्यक्षीय वक्तव्य की एक सीमा होती है, उस पर भी यदि दो दिवसीय संगोष्ठी के अंतिम सत्र का अध्यक्षीय वक्तव्य हो तो फिर क्या कहने ! आधे से अधिक श्रोता भाग चुके होते हैं और जो बचे होते हैं उनमें आपको सुनने की शक्ति और सामर्थ्य बचा नहीं होता है | ऐसे में गुरुदेव को मैंने अजीब उलझन में डाल दिया था | अन्ततः सभी के प्रपत्र वाचन के बाद गुरुदेव के बोलने की बारी आयी | उन्होंने अपना वक्तव्य मेरी ही बात से आरम्भ की और धीरे-धीरे हिंदी नवजागरण की ओर बढे |उसके बाद उस दिन वहां जो घटित हुआ, शायद आसनसोल में पहली बार हुआ था | गुरुदेव अपने रौ में थे और उन्होंने हिंदी नवजागरण और छायावदी काव्य पर विस्तार से बात करते हुए , पंक्तियों को उद्धृत करते हुए, हिंदी नवजागरण के विकास को नागार्जुन तक दिखलाया | मुझे तो ताजुब इस बात का हो रहा था कि उन्होंने कोई बात बिना प्रमाण के नहीं कही थी | पन्त, प्रसाद, निराला, महादेवी, यहाँ तक कि नागार्जुन की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए हिंदी नवजागरण का विस्तार उन्होंने नागर्जुन तक जो दिखाया था, अद्भुत और अविस्मरणीय था | लगभग एक घंटे तक लगातार गुरुदेव बोलते रहे थे | ताजुब की बात यह थी कि सारे श्रोता जैसे के तैसे बैठे हुए थे | एक भी व्यक्ति ने अपनी जगह तक नहीं बदली, जब तक कि उनका वक्तव्य समाप्त नहीं हो गया | अंतिम अध्यक्षीय वक्तव्य में ऐसी तलीनता आज के पहले मैंने कभी नहीं देखी थी | वाकई वह दिन न केवल मेरे लिए, बल्कि आसनसोल के हर साहित्यिक व्यक्ति के लिए बेहद खास था | आज भी शहर के लोग बड़े आत्मीय ढंग से उस व्याख्यान को याद करते हैं | ऐसे हैं प्रोफेसर चौथीराम यादव और उनकी वक्तृत्व कला !
       दूसरा उदाहरण अभी कुछ दिन पहले १६ जून, २०१३ की है | उस दिन दिन  चौथीराम जी दुर्गापुर आये थे, एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने | दरअसल पिछले दो साल से डॉ० विमल के शिष्य उनके जन्मदिन(०१ जनवरी) पर दुर्गापुर में एक साहित्यिक आयोजन करते हैं जिसमें कुछ वक्ता बाहर के बुलाये जाते हैं | पिछले साल चौथीराम जी और विजेंद्र नारायण जी इस कार्यक्रम के वक्ता रहे थे और इस वर्ष मुख्य वक्ता थे चौथीराम जी और शशिभूषण शीतांशु | वैसे इस कार्यक्रम को जनवरी में ही हो जाना था, किन्तु किसी कारणवश जनवरी में न हो सका और १६ जून को आयोजित था | इस कार्यक्रम के पहले और उद्घाटन सत्र में डॉ० विमल की रचनावली के दूसरे खंड ‘चिंता के चरण खंड-२’ और डॉ० कृष्ण कुमार श्रीवास्तव की पुस्तक ‘आलोचना की प्रगतिशील परंपरा’ का विमोचन चौथीराम जी और शीतांशु जी ने किया था | दूसरे सत्र का विषय था ‘हिंदी आलोचना का वर्त्तमान संकट’ | मुख्य वक्ता थे शीतांशु जी और अध्यक्षता कर रहे थे चौथीराम जी | दो ही वक्ता थे | बाकी सभी श्रोता | श्रोताओं में सभी प्रबुद्ध श्रेणी के थे क्योंकि प्रायः सभी पश्चिम बंगाल के महाविद्यालयों में प्राद्यापक थे | कथाकार सृंजय भी श्रोता दीर्घा में मौजूद थे | वाकई उस दिन शीतांशु जी ने परिश्रमपूर्वक हिंदी आलोचना के वर्तमान संकट पर अपना वक्तव्य रखा था, पर पता नहीं क्यों और कैसे शीतांशु जी आलोचना के संकट पर बोलते-बोलते नामवर जी की आलोचना के संकट पर बोलने लगे थे | ताजुब की बात यह थी कि वे नामवर जी को आलोचक मानने को तैयार नहीं थे और अपने व्याख्यान के हर दो-चार वाक्य के बाद नामवर जी को उद्धृत कर रहे थे | हद तो उन्होंने तब पर कर दी जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक शोध का हवाला देते हुए उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास को चोरी के आधार पर लिखा गया उपन्यास बता दिया | मैंने उसी वक्त चौथीराम जी के मोबाइल पर एक एसएमएस(SMS) भेजा ‘मुझे उम्मीद है सर कि आप अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में शीतांशु जी द्वारा लगाये गए नामवर जी और हजारी प्रसाद द्विवेदी के आरोपों का जवाब देंगे’ | शीतांशु जी के वक्तव्य के बाद शीतांशु जी से कई सवाल श्रोताओं के द्वारा पूछे गए – खासकर आलोचना के संकट के सन्दर्भ में | श्रीवास्तव जी, मैंने, सृंजय जी आदि ने उनसे सवाल किये और धैर्यपूर्वक शीतांशु जी उनके जवाब भी दिए | सवाल-जवाब के इस क्रम में संगोष्ठी का माहौल गरम हो चूका था | ऐसे ही समय में चौथीराम जी अपने अध्यक्षीय वक्तव्य के लिए उठे | उसके बाद जो हुआ, उसकी कल्पना भी शीतांशु जी ने नहीं की होगी | चौथीराम जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में विस्तारपूर्वक नामवर जी और हजारी प्रसाद द्विवेदी पर शीतांशु जी द्वारा लगाये गए आरोपों का जवाब दिया था | अपने कुशल तर्क के आधार पर चौथीराम जी ने प्रमाणित किया था कि हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘अनामदास का पोथा’ किस तरह से महत्त्वपूर्ण रचना है  | साथ ही उन्होंने यह भी प्रमाणित किया था कि नामवर जी की तमाम विसंगतियों के बावजूद स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना पर नामवर जी के बगैर हम बात पूरी नहीं कर सकते | हम उनकी मान्यताओं से सहमत-असहमत हो सकते हैं, किन्तु उन्हें खारिज नहीं कर सकते | इस क्रम में चौथीराम जी के तर्क इतने पुष्ट थे कि शीतांशु जी और उनके प्रिय शिष्यगण बगलें झांकने लगे | यहाँ तक कि शीतांशु जी को यहाँ तक कहना पड़ गया कि चौथीराम जी अपने विश्वविद्यालय का पक्ष लेकर बोल रहे हैं | इस तरह से उस दिन भी मैंने चौथीराम जी को अपने पूरे रंग में बोलते हुए देखा और सुना है | ऐसे ही कई प्रसंग हैं जिससे उनकी कुशल तर्क योजना और वक्तृत्व कला का प्रमाण हमें मिलता है | लोगों ने जब कभी भी उन्हें सुना है, चौथीराम जी ने कभी निराशा नहीं किया है | वे किसी भी विषय पर पूरी तयारी के साथ बोलते हैं | कई दफा बिना किसी तैयारी के भी मैंने उन्हें बेहतरीन बोलते हुए सुना है | ऊपर के दो उदाहरण तो सिर्फ उनकी बानगी भर है |
    इस प्रकार कहा जा सकता है कि चौथीराम जी वक्तृत्व कला के धनी आलोचक हैं | वक्तृत्व कला की जिस परंपरा की शुरुआत उनके प्रिय और आदर्श गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया था, उस परंपरा का कुशल संरक्षण और निर्वहन नामवर जी और चौथीराम जी ने किया है | हिंदी जगत में इनके जैसा वक्ता बहुत कम है |


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Thursday 26 September 2013

भगवान नहीं, व्यक्ति कृष्ण की संघर्ष-गाथा : उपसंहार

अपनी हर रचना में अपने ही रूप का खंडन करने के लिए मशहूर हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह ने महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय के कोलकाता केंद्र में 23 सितम्बर, 2013 को अपने अप्रकाशित उपन्यास ‘उपसंहार’ के अंतिम अंश का पाठ किया | इस उपन्यास में काशीनाथ जी ने अपने उस हर अंदाज और शिल्प को तोडा है, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है | पहली बात तो यह कि यह पहला मौका था जब काशीनाथ जी ने प्रकाशन से पूर्व अपनी किसी रचना का सार्वजनिक रूप से पाठ किया | दूसरी बात उपन्यास के विषय-वस्तु और कहन शैली में भी काशीनाथ जी ने इसमे आमूल-चुल परिवर्तन किया है | इस आधार पर यदि कहें तो कहा जा सकता है कि कृष्ण के पुनर्जन्म के साथ-साथ एक तरह से एक नए काशीनाथ का जन्म भी इस रचना के माध्यम से हुआ है | कृष्णचरित पर आधारित यह उपन्यास न केवल हिंदी साहित्य के लिए, अपितु संपूर्ण भारतीय साहित्य के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित होगा, ऐसी कामना है | मैं जब ऐसा कह रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए कि संभवतः कृष्ण के वृद्धावस्था के जीवन पर, महाभारत के युद्ध के बाद द्वारिका लौट गए कृष्ण के जीवन पर आधारित यह संभवतः संपूर्ण भारतीय साहित्य का पहला उपन्यास है | कृष्ण के चरित पर अनेकों रचनाएँ साहित्य में मिलती हैं, किन्तु सभी रचनाओं में हमें लीलाधारी कृष्ण, नटखट कृष्ण, कंस के संहारक कृष्ण, महाभारत के कृष्ण आदि रूपों का वर्णन मिलता है | महाभारत के बाद द्वारिका लौट गए कृष्ण के जीवन को किसी रचनाकार ने अपनी रचना का आधार नहीं बनाया है | यह महती कार्य काशीनाथ जी ने इस उपन्यास के माध्यम से किया है | स्वयं काशीनाथ जी कहते हैं “इसमें महाभारत के युद्ध के उपरांत द्वारिका लौटे उस कृष्ण के जीवन को मैंने आधार बनाया है, जो अब द्वारिकाधीश नहीं रह गए हैं | एक सामान्य मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहे हैं | और तो और स्वयं यदुवंश के कुल का अंत भी करते हैं |” जाहिर सी बात है कि कृष्ण का यह जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा होगा | सत्ता के आदी हो गए व्यक्ति से यदि सत्ता छीन ली जाती है या किसी कारणवश उसकी सत्ता और शक्ति नहीं रहती है तो उसका जीवन अत्यंत पीड़ादायी होता है | कुछ ऐसा ही कृष्ण के उत्तरकालीन जीवन में रहा है, जिसे अपनी रचना का आधार बनाया है काशीनाथ जी ने | काशीनाथ जी मानते हैं “कृष्ण संभवतः पहले राजा हैं जो उस युग में राजतंत्र के खिलाफ और जननायक थे | वे एक कुशल रणनीतिज्ञ या रणनीतिकार थे | अपने उत्तरकालीन जीवन में उनके साथ सबसे बड़ा दुःख यह रहा है कि उन्हें स्वयं के खिलाफ अर्थात अपनी सेना के खिलाफ ही युद्ध लड़ना पड़ा है, जिसमे एक तरफ वे स्वयं हैं और एक तरफ उनकी सेना | संभवतः यह हमारे इतिहास की पहली घटना रही होगी जिसमे सेनापति एक तरफ हो और सेना दूसरी तरफ | सेनापति के विपक्ष में उसकी ही सेना खड़ी हो | कृष्ण के इसी ऐतिहासिक भूल के चलते कृष्ण द्वारा पालित और विकसित द्वारका का विनाश तो हुआ ही इसके साथ-साथ कृष्ण के हाथों ही यादव कुल का नाश हुआ | बालक कृष्ण से लेकर महाभारत के कृष्ण तक वे ईश्वर के रूप में रहे हैं | अपने उत्तरकालीन जीवन में वे ईश्वर नहीं रह जाते, एक सामान्य मनुष्य के रूप में अपना जीवन व्यतीत करते है, जिसके अपने दुःख हैं, अपनी खुशियाँ हैं, अपने लोगों से शिकायत है |” निश्चय ही यह उपन्यास पौराणिक होते हुए भी अपौराणिक है | कृष्ण पौराणिक नायक रहे हैं, किन्तु इस उपन्यास के कृष्ण पौराणिक होते हुए भी प्रतीक हैं एक समृद्धशाली राजा के, एक ऐसे राजा का जिसका साम्राज्य समाप्त हो गया है और वह एक सामान्य मनुष्य की तरह अपना गुजर-वसर कर रहा है |  
        अस्तु, भारतीय कथा साहित्य में एक नयी शुरुआत करने के लिए कथाकार काशीनाथ जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं | रचना अभी प्रकाशित नहीं हुई है, शीघ्र ही प्रकाशित हो जाएगी ऐसी कामना है | मेरी यह धारणा सिर्फ काशीनाथ जी द्वारा पाठ किये गए उपन्यास के अंतिम अंश को सुनने के बाद बनी है | इसमें बात करने के लिए ढेरों मुद्दे होंगे, लेकिन इसके लिए हमें अभी उपन्यास के प्रकाशित होने का इंतज़ार करना होगा | तब तक के लिए काशीनाथ जी को हार्दिक बधाई ! 


Tuesday 16 July 2013

जून, २०१३ के ‘पाखी’ में प्रकाशित कविता ‘अजानुबाहू’ में कवि दिनेश कुशवाह ने बड़े ही चुटीले, पर मार्मिक तरीके से हमारे समय के समाज की विसंगतियों को न केवल उकेरा है बल्कि हमें आईना भी दिखाया है | पूरी कविता में कई पंक्तियाँ हमें सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि आखिर हम किस समाज में रह रहे हैं- क्या थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी....
जरा इस कविता की कुछ पंक्तियों को आप भी देखिये....


यहाँ किसिम-किसिम के बडबोले हैं
कोई कहता है
इनके एजेंडे में कहाँ है आदिवासी
दलित-पिछड़े और गरीब लोग
ये बीसी-बीसी( भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार) करें
हम इस बहाने ओबीसी को ठिकाने लगा देंगे
.............................................................
............................................................
...........................................................
........................................................
 cM+cksys dHkh ugha cksyrs
Hkw[k [krjukd gS
[krjukd gS yksxksa esa c<+ jgk xqLlk
xjhc vkneh rdyhQ+ esa gS
cM+cksys dHkh ugha cksyrsA
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cM+cksys ;g ugha cksyrs fd
fonHkZ ds fdlku dg jgs gSa
ys tkvks gekjs csVs&csfV;ksa dks
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gekjs ikl u thus ds lk/ku gSa
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cM+cksys ;g ugha cksyrs fd
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ऐसी ही कई पंक्तियाँ हैं इस कविता में जो बरबस हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती हैं...एक अच्छी कविता लिखने के लिए कवि दिनेश कुशवाह को बधाई...




  

Saturday 29 June 2013

Dr. Mahendra Prasad Kushwaha: 'पाखी' के जून अंक में प्रसिद्ध कवि दिनेश कुशवाह की...

Dr. Mahendra Prasad Kushwaha: 'पाखी' के जून अंक में प्रसिद्ध कवि दिनेश कुशवाह की...: 'पाखी' के जून अंक में प्रसिद्ध कवि दिनेश कुशवाह की 'उजाले का अजानबाहु' शीर्षक से एक लम्बी कविता प्रकाशित हुई है | यह कविता ...

Friday 21 June 2013

'पाखी' के जून अंक में प्रसिद्ध कवि दिनेश कुशवाह की 'उजाले का अजानबाहु' शीर्षक से एक लम्बी कविता प्रकाशित हुई है | यह कविता निश्चय ही हमारे वर्तमान परिप्रेक्ष्य को उजागर करती है और भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर करती है | आप भी पढ़िए इस कविता को ..

                    



mtkys esa vktkuqckgq

                -दिनेश कुशवाह 
cM+Iiu dk vksNkiu l¡Hkkyrs cM+cksys
vius eq¡g ls fudyh gj ckr ds fy,
vius vki dks 'kkck'kh nsrs gSa
tSls nqfu;k dh lkjh egkurk,¡
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dqucs ds dk;k&dYi esa yxs cM+cksys
fo'o dY;k.k ls NksVh ckr ugha cksyrsA

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ge gksrs rks bl ckr ds fy,
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dgrh gSa cl! cgqr gks pqdk!!
Hkz"Vkpkj fojks/kh lkjs vkanksyu
ns'k dh izxfr esa ck/kk gSa
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dgrh gSa os
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gekjs ikl u thus ds lk/ku gSa
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ugha jgs cM+cksys
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okWyekVZ vkSj vUMjoYMZ dh
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gs prqjkuu! gs iapkuu!
vuUrvkuu! lglzckgks!!

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fFkadVSad cus lkjs dye?klhV
muds jgeksa&dje ij ftUnk gSaA

i`Foh muds fy, cgqr NksVk xzg gS
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vUr dh ?kks"k.kk dj pqds gSa
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[krjs esa gSa i'kq&i{kh&igkM+
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i`Foh dks xk; dh rjg nqgrs&nqgrs
vc os /kjrh dk ,d&,d jks vka
ukspus ij rqys gSa
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dksbZ laHkkouk NksM+uk ugha pkgrs
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vfr';ksfDr ds deky Hkjs
cM+cksys buds lkFk gSaA

cM+cksyksa us jp fn;k gS
Hk;knksgu dk Hk;kog lalkj
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vius jDrcht {k=iA

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CysM] fujks/k] fljhat rks NksfM+;s
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vc g¡lus dh pht ugha jgk
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mUgksaus IykfVd dks cuk fn;k
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Nqok Hkj nhft, lksuk gkftjA

cM+cksys Xykscy /kudqcsjksa dk vkg~oku
nsokf/knso dh rjg dj jgs gSa
^dLeS nsok; gfo"kk fo/kse^
i/kkjus dh d`ik djsa nsork!
vfrfFk nsoks Hko!!
eq[; vfrfFk egknsoks Hko!!!

cM+cksys vkpk;Z cudj cksy jgs gSa
txrh of.kd o`fRr gS
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ge lalkj dks gFksyh ij j[ks
vk¡oys dh rjg ns[krs gSa
^olq/kSo dqVqEcde^ rks
gekjs ;gk¡ igys ls gh FkkA

Hkw[k xjhch vkSj Hkz"Vkpkj ds
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cus cM+cksys lksprs gSa
cj ejs ;k dU;k
gesa rks nf{k.kk ls dkeA

cM+cksys Hkxok] dkld] tqCck
igudj cksy jgs gSa
igudj cksy jgs gSa
pksaxk&,fizu vkSj dkyk dksV
cM+cksys [kn~nj igudj
ngkM+ jgs gSaA

ij vk'p;Z!!
d'ehj ls ysdj dU;k dqekjh rd
dksbZ vljnkj ph[k ugha
lc pqIiA
ftUgksaus dksf'k'k dh mUgsa
ou] dUnjk igkM+ dh xqQkvksa esa
[knsM+ fn;k x;kA

cM+cksys xzsV eksVhosVj cudj
ladkjkRed lksp dk O;kikj dj jgs gSa
vkSj djkgus rd dks
crk jgs gSa udkjkRed lksp dk ifj.kkeA

cM+cksys izse&fnol dk fojks/k
vkSj ?k`.kk&fnol dk izpkj dj jgs gSa
os HkkbZ cudj cksy jgs gSa
os ckiw cudj cksy jgs gSa
os ckck cudj cksy jgs gSaA

cM+cksys vc igys dh rjg Qsadrs ugha
ckd+k;nk cksyus dh ru[okg ;k
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v[kckjksa esa cksyrs gSa
cksyrs gSa pSuyksa ij
,adjksa dh vkokt+ esa cksyrs gSaA

cktkj ds nRrd iq= cus cM+cksys
cM+s O;olkf;;ksa esa fy[kk jgs gSa viuk uke
vkSj ;su&dsu&izdkjs.k
cM+s O;olkf;;ksa dks dj jgs gSa
viuh fcjknjh esa 'kkfeyA

'krkCnh ds egkuk;d cus cM+cksys
fcx yxkdj rsy csp jgs gSa
csp jgs gSa Hkkjr dh /kjrh dk ikuh
cM+cksys gok cspus dh rS;kjh esa gSaA

dgk¡ tk;sa\ D;k djsa\
ty lR;kxzg! ;k ued lR;kxzg!
xka/khokn ;k ekvksokn!
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cksyks turk dh vkSykn!!

cM+cksys vc enkjh dh Hkk"kk ugha
etescktksa dh nqjk'kk ij ftUnk gSa
fd vkt Hkh vlj djrk gS
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fd mUgksaus yksxksa dks
rkyh ctkus okyksa dh
Vksyh esa cny fn;kA

cM+cksys vFkZ'kkL= bfrgkl
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lsBksa vkSj ljdkjh vQljksa ds jlksb;s
cM+cksys dfo;ksa dh dkeukvksa vkSj
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vk[ksV dj jgs gSaA

cM+cksys le>rs gSa
ftldh iksFkh ij cksysaxs
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dgha tM+ rks ugha idM+ jgkA

vxj vki muds nksLr cu x;s
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igudj tk;saxs gj txg
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vkSj nq'eu cu x;s
rks vki
mudh uhprk dh dYiuk ugha dj ldrsA

os pqi jgdj dqN Hkh ugha djrs
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[kkus&ipkus dh dyk esa fuiq.k cM+cksys
vc vius csVs&nkekn&HkkbZ&Hkrhtksa dks
cuk jgs gSa Hkksx dq'ky&cs&g;kA

'kh"kZd ls mijksDr cus cM+cksyksa dks
vc fdlh ckr dk eyky ugha gksrk
mUgsa bldnj fuMj vkSj yTtkghu
vgydkjksa us cuk;k ;k mLrknksa us
mUgsa vknr us ekjk ;k vgadkj us
dgk ugha tk ldrk
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Hkz"V dj fn;k vkpkj.k dks
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vkSj ck¡V fn;k mls
tucy vkSj /kucy ds cgknqjksa esa
vkSj vc rhuksa feydj
ns'k ij ejus okyks dks

ind ck¡V jgs gSaA

Thursday 20 June 2013

नाम बड़े और दर्शन छोटे
बहुत दिनों के इंतज़ार और कोशिश के बाद विगत दिन(०३जून, २०१३) को पहली बार नेशनल लाइब्रेरी, कोलकाता जाने का अवसर मुझे प्राप्त हो सका | साथ में अभिन्न मित्र डॉ० के० के० श्रीवास्तव थे | बहुत दिनों की लालसा आज पुरी हो सकी | अपने बनारस प्रवास के दौरान से ही मैंने इस लाइब्रेरी के बारे में सुन रखा था | वरिष्ठ मित्रों, अध्यापकों और साहित्य प्रेमियों से मैंने इसके बारे में काफी कुछ सुना था | इसलिए जब बंगाल में रहने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ, तो इस बात से मैं खुश था कि अब जरुर किसी न किसी दिन नेशनल लाइब्रेरी जाने का मौका निकाल लूँगा क्योंकि महज २०० km की दूरी पर रानीगंज में रहने का अवसर मुझे मिला है | यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग-२ और हावड़ा-दिल्ली मैन रेलवेमार्ग पर स्थित है | अतः यहाँ से कोलकाता जाना आसान काम होता है | हर तरह की सुविधा यहाँ से कोलकाता जाने की उपलब्ध है | आप जब चाहें कोलकाता जा सकते हैं और आ सकते हैं | २००९ से मैं एक ऐसे मौके की तलाश में था, जिसमें नेशनल लाइब्रेरी जाने का अवसर मुझे मिल सके | हालांकि इस बीच कई बार कोलकाता जाने का मौका मुझे मिला, कोलकाता के कई साहित्यिक कार्यक्रमों में मैंने भागीदारी की, किन्तु नेशनल लाइब्रेरी जाने का मौका मैं नहीं निकाल सका | इसका मुख्य कारण था कि मैं हडबडी में वहां नहीं जाना चाहता था | इत्मीनान से, समय लेकर जाना चाहता था | एकसूत्री कार्यक्रम के तहत | इसीलिए मुझे शायद इतने दिन लग गए | अतः ०३ जून को जब मुझे यह अवसर मिला, तो मैं काफी उत्साहित और प्रफुल्लित था | यह अवसर मेरे लिए किसी तोहफे से कम नहीं था | बहरहाल ०३ जून, २०१३ को लगभग १०:३० बजे सुबह मैं नेशनल लाइब्रेरी पहुँच गया | मेरे पहुंचते ही डॉ० श्रीवास्तव भी अपने टोलीगंज के आवास से सीधे वहां पहुँच गए | मैं लाइब्रेरी की बिल्डिंग और क्षेत्र को देखकर खुश था | बीच शहर में इतनी जमीन, वो भी कोलकाता जैसे मेट्रोपोलिटन सिटी में, सुखद अनुभव का विषय था | काफी बड़े क्षेत्र में इस लाइब्रेरी को बनाया गया है | क्षेत्र(एरिया) और भव्य ईमारत के स्तर पर यह पहली नजर में मुझे अपने नाम(नेशनल लाइब्रेरी) को चरितार्थ करता दिखा | खैर, हमदोनों अन्दर गए(भाषा भवन) | पता चला कि यह बिल्डिंग हाल में बनी है | देखने में भी नया लग रहा था | वहां के किसी कर्मचारी ने मुझे बताया कि यह बिल्डिंग २००४ ई० में बनकर  तैयार हुई है | जो भी हो, यह बिल्डिंग वाकई अत्याधुनिक तरीके से बनायी गयी है | हर तरह की अत्याधुनिक सुविधा इसमें उपलब्ध है | पूर्णतः यह बिल्डिंग वातानुकूलित भी है | अंदर जाकर पहला काम मैंने इसकी सदस्यता लेने का किया | तत्पश्चात हमदोनों मुख्य वाचनालय(रीडिंग रूम) में गए | कंप्यूटर से कैटलोग देखने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे | यहीं से इस यात्रा की त्रासदी शुरू होती है | कंप्यूटर के द्वारा कैटलोग देखने में नाकाम रहने के बाद हमदोनों ने रीडर्स असिस्टेंस की मदद लेना मुनासिब समझा | कुछ देर के इंतज़ार के पश्चात वे आये | हमदोनों अपनी फ़रियाद लेकर उनके पास गए | दरअसल हमदोनों को पत्रिकाएं देखनी थी, जिसे कैटलोग में नहीं ढूंढ पा रहे थे | खैर, फ़रियाद लेकर गए | अपनी बात रखने के पश्चात सहायक महोदय ने कहा “हिंदी की किताबों का कंप्यूटरीकरण अभी तक नहीं हो पाया है | इसीलिए आपको वहां नहीं मिला |” हमदोनों ने कहा खैर कोई बात नहीं | आप मुझे यह बता दें कि हिंदी की पत्रिकाएं(पुरानी) कहाँ मिलेंगी | उन्होंने कहा “आप दुसरे तल्ले पर पीरियाडिकल सेक्शन में चले जायें |” हमदोनों वहां गए | वहां पता चला कि यह इंग्लिश का है | अन्य भाषाओँ की पत्रिकाएं यहाँ नहीं हैं | हमदोनों ने उनसे यह जानने की कोशिश की कि आखिर हिंदी की पत्रिकाएं कहाँ मिलेंगी | उन्होंने कहा “ मुझे नहीं मालूम | आप मेन रीडिंग रूम में असिस्टेंट से पता करिये |” पुनः नीचे हमदोनों आये | पूछने के बाद पता चला कि आप यहीं कैटलोग से देख लीजिये | मैंने उनसे कहा कि कैटलोग हमलोगों ने देख लिया है, वहां कुछ नहीं मिला | तब उन्होंने ग्राउंड फ्लोर में हिंदी डिवीज़न जाने को कहा | वहां एक सज्जन मिले | पूछने पर उन्होंने बताया कि आप बाहर annex bulding  चले जाइये | वहीं मिलेंगी |” हमलोग चले गए | आप यह जानकर हैरान होंगे कि हमें पीरियाडिकल सेक्शन खोजने में लगभग एक-से- डेढ़ घंटे लग गए | वहां के कर्मचारियों को यह पता ही नहीं है कि कौन सी चीज कहाँ मिलेगी | ऐसे में हमारे जैसे बाहर से आने वाले पाठक या शोधकर्ता को कितनी परेशानी होती होगी इसका आप सहज अनुमान कर सकते हैं | बहरहाल, वहां पत्रिकाएं मिलीं | वहां जाकर और पत्रिकाओं को देखकर मुझे हैरानी हुई | हैरानी इस बात की कि इतनी बड़ी और नामी लाइब्रेरी में हिंदी की पत्रिकाएं महज खानापूर्ति के लिए रखी गयी थीं | हिंदी की एक भी प्रतिष्ठित पत्रिका वहां मुझे नहीं मिली, जिसके सारे अंक वहां मौजूद हो | सारे अंक तो दूर की बात, एक वर्ष के भी सारे अंक वहां नहीं मिले | पत्रिकाओं को क्रम से भी नहीं रखा गया था | एक अंक कहीं है, तो दूसरा कहीं और | यदि आप किसी पत्रिका के एक ही साल के सारे अंक को वहां देखना चाहें तो आपको वहां निराशा ही हाथ लगेगी | पत्रिकाओं के इतने बुरे हाल थे, मानो सदियों से उसे किसी ने देखा ही नहीं हो | आलोचना, सरस्वती, कल्पना, समकालीन भारतीय साहित्य, माध्यम, ज्ञानोदय, तद्भव, पहल जैसी हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं के किसी एक साल के सारे अंक वहां मुझे नहीं मिले | मैं बेहद निराश और दुखी होकर वहां से लौटा | दुखी इसलिए था कि इस यात्रा में नेशनल लाइब्रेरी का सिर्फ ‘दर्शन’ मैं कर पाया था | ऐसा नहीं कि मेरे पास समय नहीं था | मेरे पास पर्याप्त समय था | समय लेकर  मैं वहां गया था, फिर भी मैंने इसे ‘दर्शन’ मात्र कहा है | इसका मुख्य कारण है वहां(नेशनल लाइब्रेरी) की दयनीय स्थिति | वहां जाने और लाइब्रेरी को देखने के बाद मुझे अनायास यह पंक्ति याद आ गयी – ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ | वाकई जितना मैंने इसके बारे में सुन रखा था, उसका शतांश भी वहां मुझे देखने को नहीं मिला |
         लाइब्रेरी में हमने पूरा दिन बिताया | वहाँ पाठकों की संख्या देखकर भी मुझे हैरानी हुई | मैं जिस विश्वविद्यालय(काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) का छात्र रहा हूँ, उसकी लाइब्रेरी भी समृद्ध रही है | हम सभी मित्रों ने अपने छात्र जीवन में उस लाइब्रेरी का भरपूर इस्तेमाल किया है | हम जब कभी भी लाइब्रेरी जाते लाइब्रेरी पाठकों से भरी मिलती थी | आज जब मैं इस नेशनल लाइब्रेरी में गया, तो ऐसी ही उम्मीद थी | इसलिए भी जल्दी गया था, ताकि मनपसंद पढ़ने की जगह मिल सके | लेकिन वहां जाकर जो कुछ मैंने देखा उससे दंग रह गया | दिन भर मैंने देखा कि वहां पाठक से ज्यादा कर्मचारी दिख रहे हैं | सारी कुर्सियां-मेज खाली थे | आप जहाँ चाहें बैठकर पढ़ सकते हैं | शुरुआत में मुझे लगा कि यह हमारे समय और समाज में पुस्तकों के प्रति घटते प्रेम का नतीजा है | यह देखकर दुःख हुआ | थोड़े ही देर में जब मैंने पुस्तकों और पत्रिकाओं को ढूंढना आरम्भ किया, तो हकीकत का पता चला | पढ़ने और नोट करने के लिए जहाँ किताबें और पत्रिकाएं ही न हों, वहां भला कोई पाठक क्यों जाएगा ? सिर्फ उसकी खूबसूरती को देखने | आप यह जानकर हैरान होंगे कि भाषा भवन, जो अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस है, महज उसके देख-रेख और सुविधाओं पर सरकार के लाखों रुपये खर्च होते होंगे | ऐसे में इस खर्च का क्या मतलब, जब लाइब्रेरी की जान, प्राण और शान समझी जाने वाली किताबें ही वहां न हों |
         वहां के कर्मचारियों से बातचीत में मुझे कुछ चौकाने वाली बात भी सुनने को मिली | मसलन वहां के किसी कर्मचारी ने बताया कि आखिर किताबें या पत्रिकाएं यहाँ कहाँ से मिलेंगी | खरीददारी तो होती ही नहीं है | उन्होंने बताया कि “यहाँ की लाइब्रेरी में भारतीय भाषाओँ के साहित्य की खरीददारी के लिए एक रुपये का बजट नहीं है, जबकि विदेशी भाषाओं के साहित्य की खरीददारी के लिए करोड़ों का बजट होता है | विदेशी भाषाओँ के लिए इतना बजट है कि पैसे खर्च तक नहीं हो पाते |” मैं सुनकर हैरान रह गया | हैरान इसलिए कि कोई भी सरकार अपने ही देश के साहित्य के प्रति ऐसा नजरिया कैसे रख सकता है | लेकिन सच यही है | इस नामी लाइब्रेरी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ की किताबें या पत्रिकाएं इसलिए नहीं हैं कि यहाँ किताबें खरीदी ही नहीं  जाती हैं | यह लाइब्रेरी भगवान (प्रकाशक) के भरोसे जीवित है | यदि भगवान(प्रकाशक) की इच्छा हुई, मन किया और एक-आध किताबें भेज दीं, तो बहुत बड़ी कृपा | प्रकाशकों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है | गैरसरकारी प्रकाशक तो दूर, सरकारी प्रकाशक की सारी किताबें या पत्रिकाएं यहाँ नहीं पहुँचती | समकालीन भारतीय साहित्य, योजना, कुरुक्षेत्र जैसी पत्रिकाएं, जो सरकारी हैं, उसके सारे अंक वहां नहीं हैं |ऐसे में हम इस लाइब्रेरी से क्या उम्मीद कर सकते हैं , सिवाय इसके हालात पर तरस खाने के | ऐसा नहीं हैं कि यह मैं कोई अकेला आदमी हूँ, जिसने लाइब्रेरी की इस हालात को देखा है | हमारे जैसे सैकड़ों लोग इसे देखने गए होंगे | कई नामचीन हस्तियाँ भी गयी होंगी | मगर किसी को इस अजूबे प्रथा(सिर्फ विदेशी भाषाओँ के साहित्य की खरीददारी की प्रथा) पर कुछ करना मुनासिब नहीं लगा | संसद में इससे सम्बंधित सवाल हमारे साहित्य और संस्कृति के प्रतिनिधयों को उठाना लाजिमी नहीं लगा | ऐसे में कोई क्या कर सकता है | जब हम ही गहरी निद्रा में सोये हैं, तो सरकार को क्या पडी है | अतः मुझे लगता है अब वक्त आ गया है इस घोर निद्रा से बाहर निकलने का | आज जरुरत है समस्त भारतीय भाषा प्रेमियों और साहित्यकारों को एकजुट होकर इसके खिलाफ आवाज उठाने की | तब जाकर कहीं सरकार की नींद खुले | अंत में इतना ही कहना मुनासिब होगा –
बन गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए |


                                                                           -डॉ० महेंद्र प्रसाद कुशवाहा
                                                                       रानीगंज (प०बंगाल)
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