Thursday 20 June 2013

नाम बड़े और दर्शन छोटे
बहुत दिनों के इंतज़ार और कोशिश के बाद कल पहली बार सेंट्रल लाइब्रेरी, कोलकाता जाने का अवसर मुझे प्राप्त हो सका | साथ में अभिन्न मित्र डॉ० के० के० श्रीवास्तव थे | बहुत दिनों की लालसा आज पुरी हो सकी | अपने बनारस प्रवास के दौरान से ही मैंने इस लाइब्रेरी के बारे में सुन रखा था | वरिष्ठ मित्रों, अध्यापकों और साहित्य प्रेमियों से मैंने इसके बारे में काफी कुछ सुन रखा था | इसलिए जब बंगाल में रहने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ, तो इस बात से मैं खुश था कि अब जरुर किसी न किसी दिन सेंट्रल लाइब्रेरी जाने का मौका निकल लूँगा क्योंकि महज २०० km की दूरी पर रानीगंज में रहने का अवसर मुझे मिला है | यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग-२ और हावड़ा-दिल्ली मैन रेलवेमार्ग पर स्थित है | अतः यहाँ से कोलकाता जाना आसान काम होता है | हर तरह की सुविधा यहाँ से कोलकाता जाने की उपलब्ध है | आप जब चाहें कोलकाता जा सकते हैं और आ सकते हैं | २००९ से मैं एक ऐसे मौके की तलाश में था, जिसमें नेशनल लाइब्रेरी जाने का अवसर मुझे मिल सके | हालांकि इस बीच कई बार कोलकाता जाने का मौका मुझे मिला, कोलकाता के कई साहित्यिक कार्यक्रमों में मैंने भागीदारी की, किन्तु सेंट्रल लाइब्रेरी जाने का मौका में नहीं निकाल सका | इसका मुख्य कारण था कि मैं हडबडी में वहां नहीं जाना चाहता था | इत्मीनान से, समय लेकर जाना चाहता था | एकसूत्री कार्यक्रम के तहत | इसीलिए मुझे शायद इतने दिन लग गए | अतः ०३ जून को जब मुझे यह अवसर मिला, तो मैं काफी उत्साहित और प्रफुल्लित था | यह अवसर मेरे लिए किसी तोहफे से कम नहीं था | बहरहाल ०३ जून, २०१३ को लगभग १०:३० बजे सुबह मैं सेंट्रल लाइब्रेरी पहुँच गया | मेरे पहुंचते ही डॉ० श्रीवास्तव भी अपने टोलीगंज के आवास से सीधे वहां पहुँच गए | मैं लाइब्रेरी की बिल्डिंग और क्षेत्र को देखकर खुश था | बीच शहर में इतनी जमीन, वो भी कोलकाता जैसे मेट्रोपोलिटन सिटी में, सुखद अनुभव का विषय था | काफी बड़े क्षेत्र में इस लाइब्रेरी को बनाया गया है | क्षेत्र(एरिया) और भव्य ईमारत के स्तर पर यह पहली नजर में मुझे अपने नाम(नेशनल लाइब्रेरी) को चरितार्थ करता दिखा | खैर, हमदोनों अन्दर गए(भाषा भवन) | पता चला कि यह बिल्डिंग हाल में बनी है | देखने में भी नया लग रहा था | वहां के किसी कर्मचारी ने मुझे बताया कि यह बिल्डिंग २००४ ई० में बनकर तैयार हुई है | जो भी हो, यह बिल्डिंग वाकई अत्याधुनिक तरीके से बनायी गयी है | हर तरह की अत्याधुनिक सुविधा इसमें उपलब्ध है | पूर्णतः यह बिल्डिंग वातानुकूलित भी है | अंदर जाकर पहला काम मैंने इसकी सदस्यता लेने का किया | तत्पश्चात हमदोनों मुख्य वाचनालय(रीडिंग रूम) में गए | कंप्यूटर से कैटलोग देखने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे | यहीं से इस यात्रा की त्रासदी शुरू होती है | कंप्यूटर के द्वारा कैटलोग देखने में नाकाम रहने के बाद हमदोनों ने रीडर्स असिस्टेंस की मदद लेना मुनासिब समझा | कुछ देर के इंतज़ार के पश्चात वे आये | हमदोनों अपनी फ़रियाद लेकर उनके पास गए | दरअसल हमदोनों को पत्रिकाएं देखनी थी, जिसे कैटलोग में नहीं धुंध नहीं पा रहे थे | खैर, फ़रियाद लेकर गए | अपनी बात रखने के पश्चात सहायक महोदय ने कहा “हिंदी की किताबों का कंप्यूटरीकरण अभी तक नहीं हो पाया है | इसीलिए आपको वहां नहीं मिला |” हमदोनों ने कहा खैर कोई बात नहीं | आप मुझे यह बता दें कि हिंदी की पत्रिकाएं(पुरानी) कहाँ मिलेंगी | उन्होंने कहा “आप दुसरे तल्ले पर पीरियाडिकल सेक्शन में चले जायें |” हमदोनों वहां गए | वहां पता चला कि यह इंग्लिश का है | अन्य भाषाओँ की पत्रिकाएं यहाँ नहीं हैं | हमदोनों ने उनसे यह जानने की कोशिश की कि आखिर हिंदी की पत्रिकाएं कहाँ मिलेंगी | उन्होंने कहा “ मुझे नहीं मालूम | आप मेन रीडिंग रूम में असिस्टेंट से पता करिये |” पुनः नीचे हमदोनों आये | पता करने के बाद पता चला कि आप यहीं कैटलोग से देख लीजिये | मैंने उनसे कहा कि कैटलोग हमलोगों ने देख लिया है, वहां कुछ नहीं मिला | तब उन्होंने ग्राउंड फ्लोर में हिंदी डिवीज़न जाने को कहा | वहां एक सज्जन मिले | पूछने पर उन्होंने बताया कि आप बाहर annex bulding चले जाइये | वहीं मिलेंगी |” हमलोग चले गए | वहां पत्रिकाएं मिली | वहां जाकर मुझे हैरानी हुई | हैरानी इस बात की कि इतनी बड़ी और नामी लाइब्रेरी में हिंदी की पत्रिकाएं महज खानापूर्ति के लिए रखी गयी थी | हिंदी की एक भी प्रतिष्ठित पत्रिका वहां मुझे नहीं मिली, जिसके सारे अंक वहां मौजूद हो | सारे अंक तो दूर की बात, एक वर्ष के भी सारे अंक वहां नहीं मिले | पत्रिकाओं को क्रम से भी नहीं रखा गया था | एक अंक कहीं है, तो दूसरा कहीं और | यदि आप किसी पत्रिका के एक ही साल के सारे अंक को वहां देखना चाहें तो आपको वहां निराशा ही हाथ लगेगी | पत्रिकाओं के इतने बुरे हाल थे, मानो सदियों से उसे किसी ने देखा ही नहीं हो | आलोचना, सरस्वती, कल्पना, समकालीन भारतीय साहित्य, माध्यम, ज्ञानोदय, तद्भव, पहल जैसी हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं के किसी एक साल के सारे अंक वहां मुझे नहीं मिले | मैं बेहद निराश और दुखी होकर वहां से लौटा | वहां जाने और लाइब्रेरी को देखने के बाद मुझे अनायास यह कहावत याद आ गया –‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ | वाकई जितना मैंने इसके बारे में सुन रखा था, उसका शतांश भी वहां मुझे देखने को नहीं मिला |
वहां के कर्मचारियों से बातचीत में मुझे कुछ चौकाने वाली बात भी सुनाने को मिली | मसलन वहां के किसी कर्मचारी ने बताया कि आखिर किताबें या पत्रिकाएं यहाँ कहाँ से मिलेंगी | खरीददारी तो होती ही नहीं है | उन्होंने बताया कि “यहाँ की लाइब्रेरी में भारतीय भाषाओँ के साहित्य की खरीददारी के लिए एक रुपये का बजट नहीं है, जबकि विदेशी भाषाओं के साहित्य की खरीददारी के लिए करोड़ों का बजट होता है | विदेशी भाषाओँ के लिए इतना बजट है कि पैसे खर्च तक नहीं हो पाते |” मैं सुनकर हैरान रह गया | हैरान इसलिए कि कोई भी सरकार अपने ही देश के साहित्य के प्रति ऐसा नजरिया कैसे रख सकता है | लेकिन सच यही है | इस नामी लाइब्रेरी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ की किताबें या पत्रिकाएं इसलिए नहीं हैं कि यहाँ किताबें खरीदी ही नहीं जाती हैं | यह लाइब्रेरी भगवान (प्रकाशक) के भरोसे जीवित है | यदि भगवान(प्रकाशक) की इच्छा हुई, मन किया और एक-आध किताबें भेज दीं तो बहुत बड़ी कृपा | प्रकाशकों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है | गैरसरकारी प्रकाशक तो दूर, सरकारी प्रकाशक की सारी किताबें या पत्रिकाएं यहाँ नहीं पहुँचती | ऐसे में हम इस लाइब्रेरी से क्या उम्मीद कर सकते हैं , सिवाय इसके हालात पर तरस खाने के | आज जरुरत है समस्त भारतीय भाषा प्रेमियों और साहित्यकारों को एकजुट होकर इसके खिलाफ आवाज उठाने की | तब जाकर कहीं सरकार की नींद खुले | अंत में इतना ही कहना मुनासिब होगा –
बन गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए |

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